"छत्रपति संभाजी महाराज की वीर गाथा: ‘छावा’ फिल्म ने रचा नया इतिहास!"

 ''छावा' एक ऐतिहासिक एक्शन फिल्म है जो छत्रपति संभाजी महाराज के जीवन पर आधारित है। यह फिल्म 14 फरवरी 2025 को सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी।

फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर शानदार प्रदर्शन किया है। रिलीज के पहले दिन इसने 31 करोड़ रुपये कमाए। दूसरे और तीसरे दिन क्रमशः 37 करोड़ और 48.5 करोड़ रुपये की कमाई की। पहले सप्ताह के अंत तक, फिल्म ने कुल 219.25 करोड़ रुपये का व्यवसाय किया। दूसरे सप्ताहांत तक, फिल्म का कुल कलेक्शन 345.25 करोड़ रुपया

छत्रपती संभाजी महाराज: एक वीर योद्धा की अद्भुत गाथा

मुगल सल्तनत की तलवार से टकराने वाले मराठा शेरों की दास्तान जब भी कही जाती है, तो उसमें एक नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है—छत्रपती संभाजी महाराज। वे सिर्फ शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी ही नहीं थे, बल्कि एक ऐसे योद्धा थे, जिन्होंने अपने जीवन के हर मोड़ पर साहस, धैर्य और अपराजेय शक्ति का परिचय दिया। उनकी कहानी सिर्फ तलवार और युद्ध तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें गहरी राजनीति, कूटनीति और बलिदान भी शामिल था। यह कहानी एक ऐसे शासक की है, जो अंत तक अपने सिद्धांतों पर अडिग रहा और जिसने मुगलों के आगे झुकने से मर जाना बेहतर समझा।

शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी: बालक संभाजी

छत्रपती शिवाजी महाराज की संतान होना अपने आप में एक बड़ी जिम्मेदारी थी। संभाजी राजे का जन्म 14 मई 1657 को पुरंदर किले में हुआ था। वे बचपन से ही तेजस्वी, निर्भीक और विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। शिवाजी महाराज ने उनके लिए विशेष शिक्षा और युद्धकला की व्यवस्था की थी। वे संस्कृत, मराठी, हिंदी और फ़ारसी भाषाओं में निपुण थे, जिससे वे न केवल मराठा राजनीति बल्कि मुगल और अन्य राजघरानों की चालों को भी भली-भांति समझते थे।

हालांकि, उनका बचपन इतना आसान नहीं था। माता सईबाई के देहांत के बाद, वे अपनी दादी जीजाबाई के सानिध्य में बड़े हुए। परंतु, सबसे कठिन दौर तब आया जब उनके पिता शिवाजी महाराज ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए उन्हें बचपन में ही मुगलों के पास बंधक के रूप में भेजा। वहां से बच निकलने के बाद वे और भी ज्यादा परिपक्व हो गए और अपने पिता के साथ हर सैन्य अभियान में भाग लेने लगे।

संभाजी महाराज और शिवाजी महाराज के बीच विवाद

संभाजी महाराज की जुझारू प्रवृत्ति और स्वतंत्र स्वभाव के कारण कुछ दरबारी उनसे असंतुष्ट रहते थे। शिवाजी महाराज के निधन के बाद मराठा दरबार में सत्ता संघर्ष शुरू हो गया। मंत्रीगण और अन्य सरदारों ने उनके छोटे भाई राजाराम को राजा बनाने की योजना बनाई। लेकिन संभाजी राजे अपने पिता की वास्तविक विरासत के हकदार थे, और उन्होंने अपने साहस एवं चतुराई से सत्ता प्राप्त की। संभाजी महाराज को कई षड्यंत्रों का सामना करना पड़ा। उनके ही कुछ दरबारियों ने उन्हें गलत समझकर नज़रबंद कर दिया था, लेकिन उनकी वीरता और लोकप्रियता इतनी थी कि वे इस कैद से बाहर निकले और सिंहासन प्राप्त किया। उनके राज्याभिषेक के बाद, उन्होंने एक अजेय योद्धा के रूप में मराठा साम्राज्य का नेतृत्व किया।

संभाजी महाराज की युद्धनीति और शासनकाल

संभाजी महाराज ने अपने शासनकाल में मराठा साम्राज्य को और भी शक्तिशाली बनाया। वे केवल तलवार के धनी नहीं थे, बल्कि रणनीतिक रूप से भी बहुत कुशल थे। उन्होंने कई महत्वपूर्ण युद्धों में मुगलों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों को धूल चटाई।

1. मुगलों से लोहा लिया

औरंगज़ेब ने जब दक्षिण भारत पर कब्जा करने की योजना बनाई, तो सबसे बड़ा रोड़ा संभाजी महाराज ही थे। उन्होंने अपनी सेना के साथ मुगलों के कई हमलों को नाकाम किया। जब औरंगज़ेब ने पूरे बल के साथ हमला किया, तो संभाजी महाराज ने छापामार युद्ध नीति अपनाई और मुगल सेना को भारी नुकसान पहुँचाया।

2. पुर्तगालियों और सिद्दी के खिलाफ संघर्ष

संभाजी महाराज ने गोवा के पुर्तगालियों को चुनौती दी और उनकी शक्ति को कमजोर किया। इसके अलावा, सिद्दी के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए भी उन्होंने कई युद्ध किए और उसे पीछे हटने पर मजबूर किया।

3. अंग्रेजों को सबक सिखाया

संभाजी महाराज ने अंग्रेजों को भी यह एहसास दिलाया कि मराठों से टकराना आसान नहीं है। उन्होंने अपनी नीतियों से अंग्रेजों के व्यापारिक मंसूबों को झटका दिया और उन्हें अपने अधीन रहने के लिए मजबूर किया

संभाजी महाराज की गिरफ्तारी और बलिदान

संभाजी महाराज की वीरता से परेशान औरंगज़ेब ने उन्हें खत्म करने के लिए चालें चलनी शुरू कर दीं। 1689 में, एक विश्वासघाती सरदार गणोजी शिर्के के कारण संभाजी महाराज का ठिकाना उजागर हो गया, और मुगल सेना ने उन्हें पकड़ लिया। औरंगज़ेब चाहता था कि संभाजी महाराज इस्लाम कबूल कर लें और मुगलों की अधीनता स्वीकार कर लें। लेकिन एक सच्चे मराठा शेर की तरह, उन्होंने मौत को गले लगाना स्वीकार किया, पर अपने आत्मसम्मान और धर्म को नहीं छोड़ा संभाजी महाराज को भीषण यातनाएँ दी गईं—उनकी आँखों को गर्म सलाखों से जला दिया गया, जीभ काट दी गई, और शरीर को लोहे की गरम सलाखों से दागा गया। फिर भी, उन्होंने झुकने से इंकार कर दिया। अंततः, 11 मार्च 1689 को, उन्हें बेरहमी से मार दिया गया, लेकिन उनकी शहादत मराठा साम्राज्य के लिए प्रेरणा बन गई।

संभाजी महाराज की विरासत

संभाजी महाराज का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी मृत्यु के बाद, मराठों ने और भी अधिक ताकत के साथ मुगलों का मुकाबला किया। उनकी प्रेरणा से छत्रपती राजाराम और बाद में पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य को और भी ऊँचाइयों तक पहुँचाया। संभाजी महाराज केवल एक योद्धा नहीं थे, बल्कि वे एक विद्वान और कवि भी थे। उन्होंने कई संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन किया था और वे स्वयं भी काव्य रचना करते थे। वे एक ऐसे राजा थे, जिन्होंने अपनी प्रजा को हमेशा सर्वोपरि रखा और अपने अंतिम समय तक मराठा गौरव को बनाए रखा।

छत्रपती संभाजी महाराज की कहानी केवल इतिहास की एक घटना नहीं है, बल्कि यह एक प्रेरणादायक गाथा है, जो हर भारतीय को साहस, निडरता और कर्तव्यनिष्ठा का पाठ पढ़ाती है। वे सिर्फ एक योद्धा नहीं थे, बल्कि वे एक आदर्श नेता और मराठा गौरव के प्रतीक थे। उनकी शहादत ने यह सिद्ध कर दिया कि सच्चे शेर कभी हारते नहीं, वे इतिहास में अमर हो जाते हैं।

मराठा शेर और असली शेर: संभाजी महाराज की अद्भुत कहानी

संभाजी महाराज केवल युद्ध के मैदान में ही वीर नहीं थे, बल्कि वे निडरता और साहस के प्रतीक थे। एक बार की बात है, जब उन्होंने अपनी वीरता का ऐसा उदाहरण पेश किया, जो मराठा इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो गया। यह कहानी है मराठा शेर की असली शेर से हुई भिड़त

यह घटना उस समय की है जब संभाजी महाराज अपने कुछ सैनिकों के साथ यात्रा कर रहे थे। वह घना जंगल था, जहाँ दूर-दूर तक सिर्फ पेड़, झाड़ियाँ और सन्नाटा पसरा था। यह इलाका खतरनाक था, क्योंकि यहाँ जंगली जानवरों का आतंक था, खासकर शेरों का। रास्ते में अचानक घना कोहरा छा गया। संभाजी महाराज अपने घोड़े पर सवार थे, लेकिन अचानक उनका घोड़ा बिदक गया और वे अपने सैनिकों से कुछ दूरी पर अकेले रह गए। अंधेरे और कोहरे के बीच वे जब आगे बढ़े, तो उन्हें लगा कि कोई उन पर नज़र रख रहा है। जैसे ही संभाजी महाराज ने चारों ओर नजर दौड़ाई, अचानक झाड़ियों के पीछे से एक बड़ा, ताकतवर शेर निकलकर सामने आ गया। उसकी आँखें अंगारों की तरह जल रही थीं, और वह धीरे-धीरे संभाजी महाराज की ओर बढ़ रहा था। किसी भी आम आदमी के लिए यह भय से कांपने वाली स्थिति होती, लेकिन संभाजी महाराज मुस्कुराए। वे जानते थे कि मराठा शेर को डराने के लिए एक जंगली शेर की दहाड़ काफी नहीं थी। शेर गरजा और पूरी ताकत से छलांग लगाकर संभाजी महाराज की ओर झपटा। लेकिन संभाजी महाराज ने बिजली की तेजी से अपनी धारदार तलवार निकाल ली और शेर के पंजा मारने से पहले ही उसके ऊपर वार कर दिया। शेर ज़ख्मी हुआ, लेकिन वह पीछे नहीं हटा। वह दोबारा संभाजी महाराज पर हमला करने के लिए झपटा। इस बार संभाजी महाराज ने अपनी पूरी ताकत से तलवार घुमाई और शेर की गर्दन पर वार किया। कुछ ही क्षणों में शेर ज़मीन पर ढेर हो गया। जंगल में सन्नाटा छा गया। मराठा शेर ने असली शेर को हरा दिया था। थोड़ी देर बाद जब सैनिक वहाँ पहुँचे, तो उन्होंने जो दृश्य देखा, उससे वे दंग रह गए। सामने एक विशाल शेर मरा पड़ा था, और उसके पास खड़े थे संभाजी महाराज, अपनी तलवार पर बहते हुए खून के साथ।यह देखकर सैनिकों को गर्व महसूस हुआ। उनके नेता केवल युद्ध में ही नहीं, बल्कि किसी भी परिस्थिति में निडर थे। वे सच्चे वीर थे, जो मौत से भी नहीं डरते थे।

निष्कर्ष

संभाजी महाराज का यह साहसिक कारनामा मराठा इतिहास में अमर हो गया। यह घटना हमें सिखाती है कि सच्चा वीर वही होता है, जो विपरीत परिस्थितियों में भी हिम्मत नहीं हारता। चाहे दुश्मन मुगल हो या जंगल का राजा शेर—मराठा शेर कभी घबराता नहीं, वह केवल जीतना जानता है!





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